राष्ट्रपति महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा और अनशन के माध्यम से अपनी बात मनवाने के सिद्धांतों को पूरी दुनिया में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। गांधीजी ने अपने जीवनकाल में कई अनशन किए और अंग्रेजों से लेकर आजाद भारत की राजनीतिक सत्ता तक को अपने इस अहिंसात्मक हथियार के जरिए झुकाते रहे। किंतु एक समय ऐसा भी आया था जब खुद महात्मा गांधी ने अनशन के प्रति अरुचि दिखाई थी। 
दरअसल, इस मामले में वे खुद नहीं बल्कि श्रीरामलू नामक उनके शिष्य अनशन कर रहे थे। जब जवाहरलाल नेहरू ने किन्हीं कारणों से बापू से अनुरोध किया कि 'श्रीरामलू को अनशन से रोका जाए', तब बापू ने भी नेहरू
की बात मानते हुए श्रीरामलू को अनशन से रोक दिया था। बाद में बापू का यही शिष्य आंध्र प्रदेश की मांग को लेकर ऐसा अनशन पर बैठा कि मृत्यु ही उन्हें उठा सकी।
यह किस्सा जिन श्रीरामलू का है वे गांधीजी के परम शिष्य थे। सन् 1901 में मद्रास (अब चेन्न्ई) में जन्मे श्रीरामलू रेलवे में नौकरी करते थे। मगर अचानक एक दिन पत्नी और नवजात बच्चे की मृत्यु के बाद जीवन से उनका मोह
छूट गया। वे नौकरी छोड़कर महात्मा गांधी के सत्याग्रह में शामिल हो गए। यहां उन्होंने सत्य, अहिंसा और अनशन का पाठ पढ़ा। उन्होंने देखा कि बापू अपने अनशन से कू्रर और निर्दयी अंग्रेजों को भी झुका लेते थे। इसका श्रीरामलू पर गहरा असर हुआ। प्रेरणा लेकर उन्होंने मद्रास प्रांत के सभी मंदिरों को अछूत मानी जाने वाली जातियों के लिए खोलने का संकल्प लेते हुए आमरण-अनशन शुरू कर दिया। किंतु तब कांग्रेस के अन्य नेताओं, जिनमें जवाहरलाल नेहरू प्रमुख थे, ने श्रीरामलू से अनशन तोड़ने की बात कही।
दरअसल, ये नेतागण चाहते थे कि अभी आजादी पाने पर पूरा ध्यान केंद्रित किया जाए। ऐसे में यदि दूसरे मुद्दों के लिए अनशन किए गए तो ध्यान भटक जाएगा। मगर तमाम अनुरोधों के बावजूद श्रीरामलू का संकल्प कमजोर नहीं हुआ। वे और दृढ़ता से अपने अनशन पर डटे रहे। तब नेहरू ने गांधीजी से मुलाकात की और उनसे श्रीरामलू को समझाने और अनशन रुकवाने का अनुरोध किया।
बापू पहले तो थोड़ा रुके, क्योंकि श्रीरामलू उन्हीं के सिखाए रास्ते पर चल रहे थे, लेकिन जब नेहरू ने उन्हें राजनीतिक मजबूरियां और वक्त की जरूरत के बारे में समझाया तो गांधीजी मान गए। उन्होंने तुरंत श्रीरामलू को बुलवाया और अनशन न करने के लिए कहा। इस पर श्रीरामलू आश्चर्य से भर गए और बापू की ओर प्रश्न भरी आंखों से देखने लगे। बापू ने तब श्रीरामलू से आंखें नहीं मिलाईं और चले गए। यह बात फिर कभी बाहर नहीं आई कि 'स्वयं बापू ने राजनीतिक कारणों से अनशन रुकवाया था'।